शंखनाद हुआ। चहुं ओर धर्म बिगुल गूंज प्रतिपल रहा। चंचल चित्त लिए चक्रपाणि चले संग सखाओं का
गांडीव भारी चल रहा। विकट परिस्थिति देख धरा पर धर्म का बिगुल बजाने को विष्णु जिसमें द्वापर की
भांति संग चलें। धर्ममय धरा सजाने को कोलाहल सा शांत हुआ। मृत्युलोक में निर्मल उज्ज्वल तनिक
लिखी धरा न भी उन्हीं नरनारायण ने फिर से वसुन्धरा पर पांव धरा क्रोध भरे स्वर में बोले अर्जुन माधव
ये क्या रक्त पाते हैं। कैसा ये समाया आया है। कैसा ये नवीन मनुज है। मानवता को जिसने नोच नोच कर
खाया है, कृष्णार्जुन कलियुग संवाद Credit DeepanKur Bhardwaj Poetry
ये कैसा धर्मी समाज हो चला। कैसी विकट घड़ी धरा पर आई है। अंधकार फैला चारों ओर है। कैसी प्रचंड ये तबाही है।
सनातन सभ्यता सब भूल चुके हैं। यहां रिश्तों की ना लाज बची माधव तनिक मौन को तोड़ो कहां किसने ये तमस की
बिसात रची मुझे नहीं है। ज्ञात धरा पर पहले क्या कभी ऐसा काल भी आया था? क्या इस नवयुग के लिए ही हमने
महाभारत में धर्म पक्ष को युद्ध जिताया था। किसकी करणी को न वाका पे किसने अधर्म का कोलाहल करवाया है,
उस अधर्मी का भी काल मैं ही बनूंगा। क्रोध मुझे शब्द आया है।
माधव ने सहसा मुख खोला। पार्थ से बोलो बोल पड़े मन से अभी भी कोमल हो। तुम सामर्थ्य हो,
अर्जुन हो तुम वीर। बड़े गीता उपदेश जरा याद करो। मैं तुमको जो मैंने सुनाया था अधर्म का द्वापर
में जब वर्चस्व बढ़ा था, मैं तभी धरा पर आया था। आज भी तो मैं हूं। यही धरा पर मुझे सभी द्रश्य समझ में
आते हैं। पर ये धर्म की महिमा गाने वाले मुझको देख नहीं पाते हैं
कृष्णार्जुन कलियुग संवाद” || KrishnArjun vs KaliPurush Poetry
कैसे आज नारी को न्याय दिलाऊंगा खुद एक दूजे को मैंने भी सताते हैं। द्रौपदी के साथ हुए
नीच कृत्य को ये ही तो न्याय बताते हैं। अरे नारी की गरिमा सदा होती भंग है। सड़कों पर ये
मोमबत्तियां लेकर आते हैं। फिर घरों में दुर्योधन कर्ण की महानता के किस्से चटखारे ले लेकर ये
सुनाते हैं। इनके संग भी होता वही है जिसको ये न्याय
बताते हैं। फिर दुर्योधन कर्ण ने जो न्याय किए थे वो भी इनके ही हिस्से आते हैं।
मैं भी बस वो वक्त ढूंढ रहा हो। जब सत्य को ये समझाने गए सत्य की शक्ति से कुछ
धर्म योद्धा मेरे अर्जुन की भांति मुझको पहचानेंगे। अरे तुमद्वापर का वो युग याद करो जब
मैं उत्तर धरा पर आया था युद्ध तूने खुद ही लड़ा था। बस मैंने पथ तुमको दिखलाया था,
पर आज मनुष्य भ्रष्ट हुआ है। सत्य देख देखकर भी जटिल आता है। मृत्युलोक में धर्म का किसको पता विकलागों
घर घर में रावण, दुर्योधन और कर्ण को पूजा जाता है। अब बताओ उनको क्या में मार्ग बताओ जिनका हृदय ही
मानो पाया हुआ अरे पत्थर को कितना ही तोपालोव क्या कभी कोई पत्थर स्वयं हुआ?
अब बस मैं भी रहा? उनकी ही देख रहा हो जो तुम जैसे ही स्वार्थ बिचारी हो पर कलियुग में धर्म संस्थापना केवल तभी होगी
जब हमारे संग कुछ और बिगाड़ देवधारी हो। मैं फिर से उनको पत्नी खिलाऊंगा फिर महाभारत करना होगा।
इतिहास से धर्म का मर्म जानकर मनोज को फिर से खुद ही लड़ना होगा।
क्रोधित जिसने गाण्डीव उठाकर बोले हमने था धर्ममय जगत सजाया फिर किसने मनोज को भ्रष्ट किया कौन है
वो जिसने ये कपट रचाया सखा तुमने ये अब तक क्यों ना स्पष्ट किया अटपटा हास्य करता हुआ कली नरनारायण
सम्मुख प्रकट हुआ। पाप का क्रोध भी प्रचंड रहा था। अब दृश्य बड़ा ही विकट हुआ। करीने को जियो कहा कि अरे
तुम दोनों द्वापर में खूब लड़े थे पर ये मेरा काल है। मैं हूँ कलि मनोज को अधर्म का पाठ पढ़ाकर मैं धर्म को चढ़ा देता हूं।
कृष्णार्जुन कलियुग संवाद” || KrishnArjun vs KaliPurush Poetry
बली तुम्हारा इतिहास तो सदाबहार रहा था, मैंने नया इतिहास बनाया है। याद धर्म नहीं है।
कहीं भी लिखता। मैंने धर्म को श्रेष्ठ बनाया है। सत्य को मनोज हमें तोड़ मरोड़ सकता है। फिर
अधर्म को श्रेष्ठ बताता है तो दो दो अधर्मी छलिया हो या रावण दुर्योधन कर्ण को पूजा जाता है।
प्रेम की ऐसी दुर्गति यहां पर वासना को प्रेम माना जाता है और बालाओं की खूबसूरती का पैमाना
उसके प्रेमियों की गिनती को माना जाता है। प्रेम की शक्ति तो क्षीण हो चुकी यहां रुक्मिणी का
प्रेम कहार पति छोड़ बालाएं प्रेमी संग भाग नहीं नहीं सके तो क्या है उसके तो यहां अरे तेरे
कान्हा के जो भक्त बनते हैं वो भी गाना भक्त नहीं तेरे योगेश्वर को छलिया रास रचा लिया।
बताते हैं तमस भरा है। रगों में इनकी रक्त गई।
10 वर्ष के बालक के खेल को भोग विलास वही रासलीला तेरे माता के ही भक्त बताते हैं
और तमस भरे या धरनी रासलीला कह कर बालाओं की गरिमा से खेले जाते हैं। अब तो महाभारत
में भले आ जा रहा था, मुझको ना जीत पाएगा। मैं ने जो आज मनोज मैं अधर्म का विष भोला है तो उसको
काटना पड़ेगा। मैं तो मनोज के जहर में हो, क्या उनके ह्रदय को चीर पाएगा? यदि मनोज का संहार करेगा
तो अधर्म किसे सिखला लेगा। अरे छू नहीं तो मुझे याद आता गांडीव साथ तो लाख बलि। अरे ये द्वापर नहीं
एक कलि का युग है या मेरा ही बस राज चले। मैं वो दुर्योधन अभिमानी नहीं जो राज्य की लालसा में मर
जाएगा। मैं वो अधर्म के विष का प्याला हो जो सबके मन में घर कर जाएगा। धर्म के प्रति मनोज की नस नस
में आता ना बीज बो दूंगा। अधर्मियों को श्रेष्ठ बताकर धर्म का अस्तित्व ही में खो दूंगा। मेरा वास तो तामसिक
मरने में है। दो। मुझे अगर दे तुम पीर सको। मैं वह बुद्धिहीन दुःशासन नहीं जिसकी छाती को तुम चीर सको।
सबके भीतर देखूंगा तुझको शरीर नहीं। मेरा कोई जात नहीं कोई वर्ण नहीं और युद्ध में तुझे बैठाकर मैं भाग
जाओ। मैं बोल नालायक कर्ण नहीं। कर्ण दुर्योधन को मनुज का आदर्श बनाकर अधर्म की बजाय जीवन के
संघर्ष को बताएगा। फिर जीवन में केवल कुछ संघर्ष देकर अपने आदर्शों की भांति ये मनोज भी अधर्मी बन
जाएगा। यहां तो नायक नहीं है तेरा संघर्ष ना किसी को दिखता है और इस सत्य का प्रकाश मंडल हुआ है।
केवल अधर्मी यहां पर बिकता है संघर्ष जीवन में तेरे बहुत था
कृष्णार्जुन कलियुग संवाद” || KrishnArjun vs KaliPurush Poetry
। तूने धर्म का सदा ही साथ दिया। पर देख जब समाज के लिए तूने बलिदान दिया था, उसने धर्म का कैसा हाल किया
गरीबी भुखमरी का खेल रचाकर सहानुभूति को हथियार बनाकर संध्या मनोज का जीवन बनवाकर उसी संघर्ष को
अधर्म की जड बतलाकर लाखों दुर्योधन कर्ण, मैं बनाऊंगा कलयुग में भी द्रौपदी की दुर्दशा फिर होगी। समाज के
आदर्श ही जब मैं अधर्मी बनाऊंगा अब बोलूंगा मुझसे आकर कैसे तू टकराएगा। मासूमों के भीतर देखूंगा तुझको
क्या बदन का कर पाएगा। अरे यार के कारण वो नहीं होंगे जिनको मृत्यु देख भर में याद आएगा
और उसका कारण अधर्म को भी धर्म बता कर तेरी छाती पर चढ़ जाएगा। मन नमन नमस्कार
आ जश्नों फिर हरि का आशीर्वाद लिया। सखा से अपने आज्ञा पाकर उसने शब्दों का कुछ ही
विस्तार किया। कलि काल मुंह खोले भले कितना कलि के कलह का काल कल आएगा को कर्मियों
का कलेजा ऐसे मैं काला बना था। कपाल तेरा भी काटा जाएगा। कितने ही तू दुर्योधन लेगा, सब पर मेरा
एक ही भारी है। कर्ण जैसों को जिसने सदा ही धूल चटाई आज समाज से तेरे वो ही गुण्डे उधारी है।
द्वापर में भी तो मैंने बलिदान दिया था। कलयुग में फिर रणभूमि में डट जाऊंगा।
अपना एक एकल चेहरा मनोज को देकर मैं लाखों टुकड़ों में बंट जाऊंगा। जिस मनोज
में मेरा अंत चढ़ेगा सनातन सत्य को वो ही जानेगा। कलयुग का सारा तमस भेदकर मेरे
माधव को मेरा ही यंत्र पहचानेगा, अरे दुर्योधन कर्ण तो फिर भी महाबली थे तो कायरों की
भांति मन में छिपकर बैठा है। जब दुर्योधन कर्ण नरनारायण से पार पा सके तो किस घमंड में कलि
आठवां है। अब कोई ना कोई वरदान ही
कृष्णार्जुन कलियुग संवाद” || KrishnArjun vs KaliPurush Poetry
होगा ना किसी श्राप का बहाना काम आएगा जैसे विराट मैं दुर्योधन कर्ण का हुआ था।
कलयुग में तेरा घमंड चूर चूर हो जाएगा। तूने जो अधर्मी समाज बनाया कुछ कर्मियों को
नायक बनाया है, वो समाज में ही है। कई कलि अधर में तेरे छलका उनके मन में साया है।
कलि तेरी फैलाई कल पर काल बटा बिछाए गए कतारों की भी नहीं जरूरत। मेरा
धर्मा योद्धाओं की कलम ही तेरा काल बन जाएगी। अरे कितने ही दुर्योधन काट लिया। अधर्म का खेला। फिर से जो
खेल सके पर मेरा ये कौन से अभिमन्यु याद करूंगा, जिसको अधर्मी मिलकर भी थे झेल सके। अबकी मेरे मंसूबे
लाखों अभिमन्यु बनेंगे। फिर से पाप के पोते अधर्मियों के खंगालेंगे चलो इस बार नहीं चलनेवाला अबकी तेरे
अधर्मी कैसे लाखों अभिमन्यु को संभालेंगे। जब सत्य का प्रकाश फैलेगा समता मास दूर हो जाएगा। कुबुद्धि
अधर्म के पुजारियों का आश्रम चकनाचूर हो जाएगा। जब लाखों अर्जुन डायमंड ध्वजा, थामेंगे और अपने कान्हा
को पहचानेंगे अबकी फिर सम्राट रण सजेगा। लाखों बार अपने कान्हा संग पधारेंगे तो भी जान ले कलिया भी है।
द्वापर में हर धर्मात्मा को जो प्रिय रहा था हर धर्म परायण हृदय में आज भी गाड़ उधारी का अजेय फिर से देखा
जाएगा। द्वापर की ही भांति अर्जुन के मात्र एक अंश से अधर्मियों का हृदय फिर से कांप का पथर्रा आएगा।
अरे द्वापर की ही बात है। अर्जुन के मात्र एक अंश से अधर्मियों का फिर से का पक्का पत्थर रहेगा। कौन के तकलीफ
ये अपने काल के आगे विचलित साब है। खाता था अर्जुन का नाता ने खड़ा द्वापर की भांति अधर्म का काल बना
निर्भय सा उसका आता था। अरे अर्जुन माधव करुणा
की मूरत से खड़े कलयुग में भी दोनों का कृष्ण रंग मोहित करता जाता था। कलयुग में भी दोनों का कृष्ण रंग मोहित करता जाता था।
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